Get my banner code or make your own flash banner

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

'अप्पन समाचार' ......हम भी हैं जोश में.............

भारत के उत्तरी राज्य बिहार में ग्रामीण महिलाओं का एक सामुदायिक समाचार कार्यक्रम इन दिनों ख़ूब धूम मचा रहा है जो पखवाड़े में एक बार टेलीविज़न पर दिखाया जाता है.
अप्पन समाचार (हमारा समाचार) नामक इस समाचार कार्यक्रम को इसी महीने यानी दिसंबर 2007 के शुरू में पहली बार टेलीविज़न पर दिखाया गया था और तभी से ये मुजफ्फरपुर ज़िले के एक दर्जन से अधिक गाँवों में काफ़ी लोकप्रिय हो गया है. इसे कभी प्रोजेक्टर पर और कभी किराए के वीडियो प्लेयर और एक बड़े टेलीविजन सेट पर दर्शकों के सामने पेश किया जाता है.

कार्यक्रम का निर्माण गंडक नदी के किनारे स्थित रामलीला गाची गाँव के एक अंधेरे से कमरे में किया जाता है जिसमे एक मेज़, दो कुर्सियां, एक पुराना टेलीविजन मौजूद है और फ़र्श पर तारों का जाल बिछा है. गाँव में पिछले चार साल से बिजली नहीं है और यहाँ अभी तक केबल टेलीविजन और लैंडलाइन फोन नहीं पहुँचे हैं. रामलीला गाची में मोबाइल फ़ोन आए हुए भी केवल एक वर्ष ही हुआ है. गाँव से सबसे निकट का अस्पताल 62 किलोमीटर दूर है और सबसे नज़दीकी पुलिस थाना 20 किलोमीटर की दूरी पर है. गाँव के लोग डकैतों और अपहर्ताओं से अपनी सुरक्षा के लिए अवैध हथियार अपने पास रखते हैं. गाँव की तीन लड़कियाँ और एक नवविवाहिता समाचार एकत्र कर करने के लिए साइकिल पर निकलती हैं और इनके पास एक सस्ता हैंडीकैम यानी वीडियो कैमरा, एक ट्रायपॉड और एक माइक्रोफ़ोन रहता है. टीम ख़ुशबू कुमारी केवल 15 वर्ष की हैं लेकिन 45 मिनट के समाचार वो एक सधे हुए एंकर की तरह पढ़ती हैं.
अनीता कुमारी उम्र में कुछ बड़ी हैं लेकिन अपने मोहक व्यक्तित्व की वजह से इलाक़े में काफी मशहूर हैं.
अप्पन समाचार बहुत कम संसाधनों के सहारे तैयार किया जाता है
अनीता कहती हैं, “मैं पानी, बिजली, किसानों की परेशानियों और महिलाओं के विषयों पर समाचार एकत्र करती हूं और फिर उन समाचारों को गाँव के बाज़ार में दिखाया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति इन्हें देखकर इनके बारे में सोच सके. इसी तरह कैमरा संभालने वाली रूबी कुमारी और नवविवाहित स्क्रिप्ट लेखिका रूमा देवी भी अपनी जिम्मेदारी बख़ूबी निभाती हैं.
इन दोनों ने बताया कि वे प्रतिदिन ऐसे विषय खोजती हैं जो ग्रामीणों को प्रभावित करते हैं और फिर इन पर प्रत्येक कोण को ध्यान में रखकर काम किया जाता है और फिर इन्हें प्रदर्शित किया जाता है.
इस अनोखे कार्यक्रम की योजना एक सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग की देन है. इस कार्यक्रम के पहले संस्करण में महिलाओं के सशक्तिकरण, निर्धनता और कृषि की समस्याओं से संबंधित समाचार दिखाए गए थे. गाँव में बिजली नहीं होने की वजह से 'अप्पन समाचार' ने प्रोजेक्टर और अन्य उपकरणों को बिजली की आपूर्ति के लिए जेनरेटर किराए पर लिया है.
संतोष सारंग ने बताया कि जल्द ही इस कार्यक्रम को प्रत्येक सप्ताह दिखाया जाएगा.
गाँव के लोग इस बात से काफी खुश हैं कि उनकी समस्याओं को टेलीविजन पर दिखाया जा रहा है और इलाके के सभी लोग उनकी आवाज़ सुन रहे हैं.
उन्हें उम्मीद है कि उनकी आवाज़ सरकारी लोगों के कानों तक भी पहुँचेगी.

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

बेटा ही क्यों...बेटी क्यों नहीं …..???????
हाल में ही बीबीसी ने एक स्टिंग के जरिए ये पर्दाफाश किया कि अभी भी दिल्ली में क्लीनिक में लिंग परीक्षण पर रोक के बावजूद धड़ल्ले से लिंग की जांच हो रही है। बीबीसी ने एक ब्रिटिश दंपत्ति को दिल्ली स्थित डॉक्टर तेलंग के क्लिनिक में भेजा जहाँ के बारे में पता चला था कि वहाँ अल्ट्रासाउंड के ज़रिए भ्रूण का लिंग पता किया जा सकता है. बीबीसी की फ़िल्म में डॉक्टर तेलंग यह स्वीकार करते हुए दिखाई गईं है कि वो गर्भवती महिला के अजन्मे बच्चे का लिंग बता देंगी. जबकि उसी क्लिनिक में एक संदेश स्पष्ट तौर पर जानकारी दे रहा था कि अजन्मे बच्चे का लिंग निर्धारण अवैध है. यहाँ तक कि डॉक्टर ने भी ब्रिटिश दंपत्ति को चेतावनी दी कि वो इसके बारे में किसी को न बताएँ. डॉक्टर तेलंग ने बीबीसी की टीम को बताया कि अगर टेस्ट से पता चलता है कि पेट में लड़की है तो वो गर्भपात का इंतज़ाम करवा देंगी. हाल ही आई एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रिटेन में बसी भारतीय मूल की कई महिलाएँ कन्या भ्रूण हत्या के लिए भारत जाती हैं. हालाँकि ऐसा करना क़ानून की नज़र में अपराध है पर बावजूद इसके भारत में कन्या भ्रूण हत्या के मामले कम होते नज़र नहीं आ रहे.

पिछले वर्ष मेडिकल
पत्रिका लांसेट की रिपोर्ट में आशंका जताई गई थी कि पिछले बीस सालों में भारत में जन्म से पहले ही करीब एक करोड़ लड़कियों की भ्रूण हत्या हुई होगी. टेस्ट के ज़रिए अजन्मे बच्चे का लिंग निर्धारण करना ब्रिटेन और भारत में अवैध है.


संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में हर वर्ष साढ़े सात लाख कन्याओं को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाता है।



मैं जहां रहता हूं, उसी फ्लोर पर सामने वाली रूम में एक किरायेदार रहता है। वह शादीशुदा है और उसे एक बेटी है। उसकी पत्नी गर्भवती थी। पति काफी चिंता में डूबा रहता था कि इसबार बेटा पैदा होगा या बेटी। उसके घर जो भी उससे मिलने आता, सबसे बस एक ही बात कहता कि भगवान करे कि इसबार बेटा ही हो। एक दिन मकान मालिक रूम का किराया मांगने आया, तो वह काफी गिरगिराने लगा कि किराया अभी नहीं दे सकता कुछ दिनों के बाद देंगे। उसकी पत्नी की हालत के देखकर मकान मालिक मान गया। उसके बाद उसने मकान मालिक से इजाजत मांगी कि अगर बेटा हुआ तो क्या मैं यहां हवन करवा सकता हूं। मकान मालिक ने इजाजत दे दी। उसने मकान मालिक से कहा कि वह भी आशीर्वाद दें कि बेटा ही पैदा हो। अगर बेटा हुआ तो ऑपरेशन करवा देंगे। इस पर मकान मालिक ने कहा ऑपरेशन क्यूं करवाएगा। तो वह बोला इतने लोगों को खिलाएगा कौन?वह दो दिनों से काफी चिंतित था। मानो वो सबकुछ लुटा चुका हो। आखिर वह दिन आ ही गया, जिस दिन का उसे इंतज़ार था। वह फिर से दूसरे बच्चे बाप बना था। इसबार उसकी मुराद पूरी हो चुकी थी। क्योंकि इसबार उसे बेटा पैदा हुआ था। वह अब काफी राहत महशूस रहा था। बच्चो की तरह चहक-चहक कर सबको बता रहा था कि बेटा हुआ है। मैं ब्रश कर था कि वह अपने रूम से बाहर आया और सीना चौड़ा कर बोला कि भाई बेटा हुआ है। ऐसा चहक रहा था मानो किला फतह कर लिया हो। उसका तो खुशी का ठिकाना नहीं था। वह इतना उत्तेजीत था कि ठीक से मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। काफी खुश था वह। होता भी क्यों नही, आखिर बेटा जो पैदा हुआ था। बुढ़ापे की लाठी जो प्राप्त कर लिया था।
मैं ब्रश करने के बाद जैसे ही टीवी ऑन किया तो एक चैनल पर एक ख़बर आ रही थी। ख़बर ये थी कि तीन बेटों ने अपने बूढ़े माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया था। मैं अचंभित था। अचंभित इसलिए था, क्योंकि एक दिन पहले ही लोकसभा में एक बिल पारित हुआ था, जिसमें प्रावधान है कि कोई भी अपने माता-पिता को घर से बाहर नहीं निकाल सकता, इसके लिए बाध्य किया गया है।
आखिर हमारे समाज में हो क्या रहा है ? समाज आखिर जा किधर रहा है। एक ओर तो लोग बेटे की चाह में लड़कियों को दुनिया में आने से पहले ही गर्भ में मार रहे हैं। बेटे ही पैदा हो इसके लिए क्या-क्या नहीं करते। डॉक्टरी ईलाज से लेकर दुआएं-मन्नत तमाम चीजों का सहारा ली जाती है। वही दूसरी ओर जिस बेटे के लिए लोग सब-कुछ बर्बाद कर देते हैं। वही बेटा एक दिन अपने माता-पिता को घर में रखने के बजाय घर से बाहर निकाल देते हैं। बेटे के जन्म लेते ही घर में खुशी की लहर पैदा हो जाती है और बेटी के पैदा होने पर मातम। माता-पिता को बुढ़ापे में जिस बेटे के सहारे की आस रहती है. वही धोका दे जाता है।
तो फिर क्यों बेटी को दुनिया में आने से पहले ही मार दिया जाता है। बेटे की तरह बेटी की परवरिश क्यों नहीं की जाती। आए दिन भ्रूण हत्या के मामले समाचारों में सुर्खियां बनती रहती हैं। फिर भी इन घटनाओं से लोग सबक नहीं लेते।

भ्रूण हत्या घटने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। लोग अपने बेटे की शादी के लिए तो सुन्दर लड़कियों की तलाश जरूर करते हैं, तो फिर क्यों बेटी को जन्म लेने से पहले ही लोगों की भृकुटी तन जाती है।

न जाने क्यों लोग इतना सब जानने के बावजूद बेटी को अहमियत देने के बजाय बेटे को ही ज्यादा अहमियत क्यों देते है ?. दोनों को बराबर क्यों नहीं मानते ?. दोनों को बराबर का ह़क क्यों नहीं देते ?. लोग बेटी को बेटे से कम क्यों ऑंकते है ?. क्या बेटी अपने मॉं-बाप की देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं ?. तो फिर दोनों के बीच ऐसा भेदभाव क्यों ?????.

सोमवार, 12 नवंबर 2007

खिला रहेगा कमल.........................?
आखिरकार दक्षिण में कमल खिल ही गया। बीजेपी के लिए बहुत ही ऐतिहासिक क्षण था। हो भी क्यों न आखिर दक्षिण के किसी भी राज्य में बीजेपी को अपना कदम जमाने का मौका जो मिला।

येदियुरप्पा किसी दक्षिण भारतीय राज्य में भाजपा के पहले मुख्यमंत्री हैं । भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली है. इसी के साथ पहली बार किसी दक्षिण भारतीय राज्य का मुख्यमंत्री भारतीय जनता पार्टी का नेता बना है. पिछले कुछ हफ़्तों से चले आ रहे राजनीतिक संकट के बाद राज्य में पिछले 34 दिनों से चला आ रहा राष्ट्रपति शासन भी समाप्त हो गया.

कुमारास्वामी के बाद येदियुरप्पा कर्नाटक के 25वें मुख्यमंत्री हैं. भाजपा किसी दक्षिण भारतीय राज्य
में पहली बार सरकार बनाने में सफल रही है.
काफी जद्दोजहद के बाद सरकार बनाने का मौका मिला था। इसलिए पार्टी के सभी आला नेता इस अवसर को गंवाना नहीं चाहते थे। इसलिए इस ऐतिहासिक मौक़े पर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, एम वेंकैया नायडू और अनंत कुमार भी मौजूद थे.


इस क्षण का गवाह तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी भी बनना चाहते थे, लेकिन उनका साथ उसके स्वास्थ्य ने नहीं दिया। इसलिए अटल जी दिल्ली से ही सिर्फ बधाई देकर ही संतुष्ट करना पड़ा।

गौरतलब है कि बीजेपी-जेडीएस के बीच 20-20 फार्मूला के तहल राज्य में सरकार चलाने की बात तय थी। लेकिन 20 महीने पूरा करने के बाद सत्ता हस्तानांतरण
नहीं होने के कारण दोनों के बीच गतिरोध पैदा हो गयी थी।
लेकिन यहां ये सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या बीजेपी कर्नाटक में विधानसभा के बचे बाकी कार्यकाल पूरा कर पाएगी ? क्या कमल 20 महीने तक खिला रहेगा। स्थिरता के सवाल पर जानकारों का मानना है कि भले ही कर्नाटक में जेडीएस और भाजपा के बीच बना गतिरोध ख़त्म हो गया दिखता हो पर अभी भी जोड़-जुगत का दौर थमा नहीं है. ऐसे में नहीं लगता कि बीजेपी-जेडीएस के बीच जो 20-20 नीति अपनाई गई है, वह सफल साबित होगी। ऐसे में अगर हालातों पर नज़र डाले तो ज्यादा आसार कमल के कुंभ्हलाने की है। बीते दिनों की गतिरोधों पर गौर किया जाय तो जो बात सामने आती है, वह है कि सरकार पर अस्थिरता के बादल छाए रहेंगे।

शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

हमला लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर…............


एक एक पत्रकार विधायक के पास एक लड़की की हत्या के मुद्दे की तहकीकात करने पहुंचते हैं। लेकिन विधायक सवालों की जबाव देने के बजाय पत्रकारों को बंधक लेते हैं।
पत्रकारों को बुरी तरह मारा जाता है।
एक की हाथ तोड़ दी जाती है। जान से मारने की धमकी दी जाती है। मुख्यमंत्री के आदेश पर दोषियों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जाता है। जेल से ही पत्रकारों को जान मारने की धमकी देता है।
ये कोई फिल्मी फसाना नहीं है, बल्कि ये घटना बिहार की राजधानी पटना में हुई। जहां लोकतंत्र पर हमला कर सत्य को उजागर करने वाले पत्रकारों को ख़बरों की तह तक जाने से रोका जाता है। रेशमा नामक लड़की की रहस्यमय हत्या के बाद एक चिठ्ठी में विधायक का नाम सामने आया था, इसी संबंध में एनडीटीवी के पत्रकार और कैमरामैन जब बाहुबली विधायक अनंत सिंह के पास पहुंचे तो विधायक भड़क उठे और पत्रकारों को मारने के लिए अपने गुर्गे को आदेश दे दिया। गौरतलब है कि विधायक अनंत सिंह पर हत्या, डकैती, बलात्कार के सैंकड़ों मामले दर्ज हैं। फिर तो पत्रकारों पर अपना रौब दिखाना लाज़िमी था।

ये पहला मौका नहीं जब पत्रकारों को सत्य लिखने-दिखाने से डराया धमकाया जाता रहा हो। अभी हाल में ही मिड-डे के पत्रकारों पर न्यायालय द्वारा अवमानना का आरोप लगाया गया था। इसके विरोध में देश-भर में प्रदर्शन हुआ था।
बिहार के ही भागलपुर जिले में भी चौथे स्तंभ की गला घोटने की कोशिश की गई थी। 2002 में दैनिक हिन्दुस्तान के एक पत्रकार को मारकर गंगा किनारे बालू में दबा दिया गया था। लेकिन पुलिस ने मुस्तैदी दिखाते हुए उस पत्रकार को मौत की मुंह से बाहर निकाला था।

पत्रकारों को सत्य लिखने से बार-बार रोका गया है और भविष्य में भी रोका जाएगा। हद तो तब हो जाती है जब समाज के नीति-निर्धारक ही सत्य लिखने वालों की गला घोंटते नज़र आते हैं। न जाने किलने ही अनंत सिंह हैं जो लोकतंत्र की गला घोंटने पर आमादा हैं। ऐसे लोगों पर अंकुश लगना ही चाहिए। अन्याथा पटना में जो वारदातें हुईं, वो फिर हो सकती है।

अगर इसी तरह से पत्रकारों पर बार-बार हमला होता रहा, तो समाज का क्या होगा। कौन सत्य और भ्रष्टाचार को सामने लाएगा। ऐसे तत्वों पर रोक लगाना अति आवश्यक जो इन घटनाओं को बढ़ावा देने से बाज नहीं आते। लोकतंत्र की हत्या करने वालों पर अंकुश कैसे लगे, इस पर भी समाज को सोचना होगा।
इस मौके का फायदा उठाने से राजनीतिक दल भला कहां चुकने वाले थे। यहां तो उन्हें बैठे-बिठाए हाथ में राजनीति की रोटी सेंकने के लिए तगड़ा मौका जो मिल गया। इसका भरपूर फायदा सभी विपक्षी पार्टियों ने जमकर उठाया और पूरे राज्य में चक्का जाम किया।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2007

हम तो ऐसे हैं भैया............................


भारत विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर है। आर्थिक विकास दर लगातार बढ़ रहा है। इंडिया गुड फील कर रहा है। परमाणु शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है। खाद्दान के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका है। लेकिन इन सब के बावजूद एक क्षेत्र में भारत बेहद पिछड़ा हुआ है, वह है ग़रीबी। 2007 के ताजा आंकड़े के मुताबिक भारत में कुल गरीबों की संख्या 220.1 मिलियन है, जिसमें ग्रामिणों की संख्या 170.5 मिलियन और शहरी की संख्या 49.6 मिलियन है।
लेकिन इसके बावजूद भारत में हाल के दिनों में चारों तरफ जिधर देखो चक दे इंडिया की धूम मची है। शाहरूख खान अभिनीत फिल्म पर्दे पर क्या आयी चारों तरफ "चक दे इंडिया" की धूम मच गई। ऐसे में जमशेदपुर में कचड़े से पटे इस सड़क पर इन बच्चों का मन भी चक दे इंडिया करने के लिए मचल उठा। मचले भी क्यों न आखिर 20-20 के वर्ल्ड कप में टीम इंडिया चक जो दिया। सो इन बच्चों का मन भी चक दे इंडिया करने के लिए मचलना स्वाभाविक था। लेकिन चक दे करने के लिए तो साजो-सामान होना चाहिए ना। लेकिन इन बच्चों के पास खेलने के लिए न तो बॉल था और न ही बल्ला, तो चक दे इंडिया कैसे किया जाता। ये बच्चें खेलने के लिए कुछ खरीद नहीं सकते। इसलिए इन बच्चों ने सड़क पर बोरी में बच्चों को बैठा कर चक दे इंडिया किया। इन बच्चों खेल को देख कर हाल-फिलहाल रिलीज हुई फिल्म "लगा चुनरी में दाग" के एक गाने .....हम तो ऐसे हैं भैया......... की याद ताजी हो गई।
सड़क पर ऐसे खेलते बच्चों पर ये गाने एकदम सटीक बैठती है। आखिर इसमें इन बच्चों का क्या दोष.........................आखिर ये बच्चे तो ऐसे ही हैं।