चुनावी मौसम आते ही भारत में ये तस्वीर आम है। इन दृश्यों को देखकर आप एक बार ये जरूर सोचेंगे कि हमारे नेता अपने पांच सालों का हिसाब देने आएं हैं। सभी पार्टियां अपने वोटरों को को लुभाने के लिए हर प्रयास करने लगती है। हर पार्टियां अपनी उपलब्धियों, मुद्दों और नीतियों का बखान करने लगती हैं। क्या सचमुच में राजनीतिक पार्टियां अपना हिसाब देती हैं। जी नहीं...हिसाब देने आए और वोट लेने आए इन पार्टियों में से अधिकतर अपने चंदों और खर्चों को लेकर पूरी तरह बंद बक्से जैसे हैं। संसद में सत्तापक्ष के साथ और विपक्ष में बैठने वाले दलों की तादाद एक हजार पचपन है। इनमें से मात्र 18 दलों ने अपने चंदों का ब्यौरा चुनाव आयोग को सौंपा है। बाकी पार्टियां अपनी पारदर्शिता और जवाबदेही तय कराने के नियमों की अनदेखी कर रहे हैं। कम से कम चुनाव आयोग से मिली जानकारी तो यही कहती है। आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक जहाँ एक ओर पारदर्शिता से बच रही पार्टियाँ बेनकाब हुईं वहीं यह भी पता चला कि जिन्हें चंदा मिल रहा है, वो किससे और कितना पैसा ले रहे हैं। यूपीए सरकार की अहम उपलब्धियों में से एक सूचना का अधिकार क़ानून भी शामिल है, लेकिन यूपीए के साथी नेता मसलन, रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, करुणानिधि, शिबू सोरेन जैसे बड़े नेता भी उस सूची में हैं जिनकी चुनाव आयोग को जानकारी देने में कोई रुचि नहीं है। अपनो चंदों को लेकर आए दिन चर्चा में रहनेवाली बहुजन समाज पार्टी के चंदों के बारे में चुनाव आयोग को रत्तीभर की जानकारी नहीं है। इसकी वजह साफ है, पार्टी ने कभी इसकी ज़रूरत ही नहीं समझी। तृणमूल कांग्रेस, पीडीपी, फ़ॉरवर्ड ब्लाक, राष्ट्रीय लोकदल, आरएसपी, नेशनल कांफ्रेंस जैसी 1000 से ज़्यादा पार्टियां चुनाव आयोग को उन्हें मिल रहे चंदे से संबंधित जानकारी नहीं दे रही हैं। चुनाव आयोग से मिली सुचना के मुताबिक एक अहम तथ्य सामने आया है। कुछ संस्थाएं कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही राजनीतिक पार्टियों को चंदा दे रही है। मसलन यूनियन कार्बाइड की वर्तमान मालिक, डाओ कैमिकल्स जैसी कंपनियाँ भी राजनीतिक दलों के लिए अछूता नहीं हैं। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी ने उनसे भी चंदा स्वीकार किया है। और तो और, गोवा के अधिकतर दानदाता ऐसे हैं जो दोनों ही दलों को मोटा चंदा देते रहे हैं. ये दानदाता बिल्डिंग, कंस्ट्रक्शन और खनन से जुड़ी हुई संस्थाएं हैं। पार्टियों को मिले चंदे पर नज़र डालें तो कुछ पार्टी तो करोड़ों रूपए लेकर काम करती नज़र आती हैं लेकिन कुछ दल ऐसे हैं जिनको मिले चंदे की ओर नज़र डालें और फिर उनके खर्चों पर तो लगता है कि मामला आमदनी अठन्नी, खर्चा रूपइया जैसा है। मसलन, समाजवादी पार्टी को वर्ष 2007-08 के दौरान केवल 11 लाख रूपए मिले। इस बारे में चुनाव आयोग ने केंद्र सरकार से सिफ़ारिश की थी कि राजनीतिक दलों के पैसे की ऑडिट के लिए एक संयुक्त जाँचदल बनाया जाए जो राजनीतिक दलों के खर्च पर नज़र रखे। इससे पार्टियों की पारदर्शिता तो तय होती ही, साथ ही राजनीतिक दलों के खर्च और उसके तरीके पर भी नियंत्रण क़ायम होता। लेकिन केंद्र सरकार ने इस सिफारिश को फिलहाल ठंडे बस्ते में ही रखा है। सचमुच, पैसे की न कोई पार्टी है, न विचारधारा। तो ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि ये मामला तो सचमुच गोलमाल का है। जी हां सब गोलमाल है..............
2 टिप्पणियां:
जी हां सब गोलमाल है...
सही है ...
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